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EXCLUSIVE: जब मस्जिद में बनी थी पहली शूटींग अकादमी, गन्नों की बंदूक और ईंट पत्थरों की गोलियों के साथ भारत को मिले दिग्गज निशानेबाज़

EXCLUSIVE: जब मस्जिद में बनी थी पहली शूटींग अकादमी, गन्नों की बंदूक और ईंट पत्थरों की गोलियों के साथ भारत को मिले दिग्गज निशानेबाज़
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Syed Hussain

Published: 24 Oct 2019 7:15 AM GMT

भारत में इन दिनों दो चीज़ें काफ़ी चर्चा में हैं, एक तो अयोध्या में राम मंदिर को लेकर सुप्रीम कोर्ट का क्या फ़ैसला आता है और दूसरी बॉलीवुड की चर्चित फ़िल्म ‘सांड की आंख’ की रिलीज़ को लेकर। इत्तेफ़ाक़ ये है कि हमारी इस EXCLUSIVE रिपोर्ट के भी तार दोनों ही जगह से जुड़े हैं, अयोध्या से तो सीधे तौर पर नहीं लेकिन अयोध्या में कभी बाबरी मस्जिद थी और हमारी रिपोर्ट में भी मस्जिद है।

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दरअसल, ‘सांड की आंख’ नाम से बॉलीवुड की इस फ़िल्म को लेकर अब तक लोगों तक ये जानकारी तो पहुंच गई है कि ये फ़िल्म बाग़पत के जोहरी गांव की उन दो दादियों की कहानी है जिन्होंने बुढ़ापे में भी शूटींग में अपने नाम का डंका बजाया। लेकिन वह यहां तक कैसे पहुंची, और जिस जोहरी राइफ़ल क्लब से उन्होंने इसकी शुरुआत की, उसके बारे में हम आपको जो बताने जा रहे हैं वह जानकर आप हैरान रह जाएंगे।

सबसे पहले तो ये जानिए कि जोहरी, बाग़पत ज़िले का एक छोटा सा गांव है, और वहीं से प्रकाशी तोमड़ और चंद्रो तोमड़ ने निशानेबाज़ी में सुर्ख़ियां बटोरी और अब कई शूटर्स इस गांव से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन कर रहे हैं। लेकिन 1998 तक बाग़पत में कोई शूटींग को जानता भी नहीं था।

भारत के दिग्गज शूटर और 2012 में लिमका बुक ऑफ़ रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज करा चुके शिमौन शरीफ़ ने द ब्रिज हिन्दी के कंटेंट हेड सैयद हुसैन के साथ बातचीत के दौरान इस राज़ पर से पर्दा हटाया।

EXCLUSIVE: शिमौन शरीफ़ के साथ पूरा इंटरव्यू आप पढ़ सकते हैं यहां

‘’पहले बागपत में शूटींग के बारे में कोई जानता भी नहीं था, इसकी शुरुआत 1998 में डॉ राजपाल ने की थी जो ख़ुद भी एक शूटर थे। उन्होंने जोड़ी राइफ़िल एसोसिएशन नाम से एक अकादमी बनाई।‘’: शिमौन शरीफ़, शूटींग कोच और एक्सपर्ट

डॉ राजपाल सिंह के पास संसाधनों और पैसों की कमी थी लेकिन उनके हौसले बेहद अमीर थे, इसलिए उन्होंने इसे सच करने की ठान रखी थी। जगह थी नहीं, तो उन्होंने जोहरी में एक मस्जिद के अंदर ही अकादमी बनाई जहां लोगों ने आपत्ति नहीं जताई बल्कि उनका साथ दिया। इसके लिए डॉ राडपाल सिंह की मदद के लिए आगे आए मंसूर लंबरदार और उन्होंने ही अपनी हवेली में स्थित मस्जिद में अकादमी खोलने के लिए इजाज़त दी। जगह तो मिल गई लेकिन अब उनके सामने परेशानी थी कि बच्चों को निशानेबाज़ी सिखाने के लिए बंदूक कैसे लाई जाए, क्योंकि न उनके पास इतने पैसे थे और न ही किसी तरह की मदद उन्हें मिल रही थी। तब उन्होंने कुछ ऐसी तरकीब लगाई जो कोई सपने में भी शायद न सोच सके। उन्होंने बंदूक की जगह गन्नों का इस्तेमाल किया और होल्डिंग प्रैक्टिस के लिए ईंट और पत्थरों से बच्चों को ट्रेनिंग दी।

मंसूर लंबरदार के साथ डॉ राजपाल सिंह

‘’ये शूटींग रेंज एक मस्जिद के अंदर थी। डॉ राजपाल के पास बहुत कम संसाधन थे, बंदूके बहुत मंहगी हुआ करती थीं। लेकिन वह गांव में इसे लोकप्रिय करना चाहते थे, तब उन्होंने ईंट पत्थर का इस्तेमाल किया और इससे बच्चों को होल्डिंग प्रैक्टिस कराई। बंदूक की जगह गन्नों के साथ बच्चे प्रैक्टिस करते थे और उसके बाद धीरे धीरे उन्होंने पिस्टल दिलाई।‘’ : शिमौन शरीफ़, शूटींग कोच और एक्सपर्ट

एक कहावत है कि हीरे की पहचान जोहरी को होती है, लेकिन यहां ये कहावत थोड़ी उल्टी हो गई है। क्योंकि सच्चे हीरे तो डॉक्टर राजपाल हैं, जिन्होंने इस ‘जोहरी’ की छिपी प्रतिभा को बाहर लाया और उन्हें तराशा। धीरे धीरे राजपाल साहब ने पिस्टल का इंतज़ाम भी किया और फिर देखते ही देखते इस गांव से सौरभ चौधरी और अमित श्येरॉण जैसे शूटर्स भी बाहर आए जो राजपाल के क्लब से सीख कर निशानेबाज़ बने थे।

‘’डॉ राजपाल की मेहनत और जोहरी के लोगों की ललक के बाद वहां के बच्चों को काफ़ी मदद मिली और कुछ बच्चों को नौकरी भी मिलने लगी जिसके बाद लोगों को लगने लगा कि इस खेल में करियर बनाया जा सकता है। कई बच्चों ने राष्ट्रीय टीम में भी जगह बनाई, देखते ही देखते शूटींग बाग़पत में लोकप्रिय होने लगी। इतना ही नहीं इसके बाद उनमें से कई शूटर्स ने अपनी अकादमी भी बना ली, उन्हीं में से एक अमित श्योरॉण हैं जो पहले डॉ राजपाल की अकादमी में प्रैक्टिस करते थे और फिर उन्होंने अपनी अकादमी बनाई। इसी तरह सौरभ चौधरी भी आगे आए। और इन्हीं के बीच दो दादियां भी बाहर आईं, जो प्रकाशी तोमड़ और चंद्रो तोमड़ हैं और इन्हीं पर अब फ़िल्म आ रही है।‘’ : शिमौन शरीफ़, शूटींग कोच और एक्सपर्ट

चंद्रो तोमड़, जिन्हें रिवॉल्वर दादी भी कहा जाता है

सही मायनों में द ब्रिज की पूरी टीम की तरफ़ से डॉ राजपाल के इस जज़्बे और मेहनत को दिल से सलाम, साथ ही साथ जोहरी के वह तमाम लोग भी क़ाबिल-ए-तारीफ़ हैं जिन्होंने देश और खेल के बीच में किसी भी तरह धर्म को नहीं लाया और मस्जिद को अकादमी के तौर पर इस्तेमाल करने दिया। काश डॉ राजपाल और जोहरी के लोगों से अयोध्या के लोग भी प्रेरणा लेते और राम मंदिर और बाबरी मस्जिद के नाम पर एक दूसरों पर निशाना साधने की बजाए, बंदूक से निशाना सीधे ‘सांड की आंख’ (बुल्स आई) पर लगाते और देश को पदक दिलाते हुए गौरान्वित करते।

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