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पटना के जाबांज बेटे मोहम्मद शम्स आलम ने रचा इतिहास
विकलांगता या दिव्यांगता महज शब्द हैं, कागजी शब्द इनसे आगे हौसलों से बढ़ा जा सकता है। ऐसी ही मिसाल हैं भारतीय पैरा स्विमर मोहम्मद शम्स आलम, जिन्होंने कई चुनौतियों से आगे बढ़कर देश का नाम रोशन किया है। उनकी बातों से साफ़ लगता है कि वह सिर्फ आगे बढ़ना जानते हैं चाहे चुनौतियां कितनी भी कठिन क्यों न हो। वास्तव में पैरा स्विमर होना ही अपने-आप में एक चुनौती है। मगर उन्होंने इस चुनौती को अपनी मंजिल बनाई और उसे हासिल भी किया। यह उनके जीने की नई आशा भी बनकर आई।
हाल ही में मोहम्मद शम्स आलम ने पटना के लॉ कॉलेज घाट पर आयोजित हुई गंगा रिवर चैंपियनशिप में 2 किमी की दूरी महज 12 मिनट 23 सेकेंड में पूरी की और नया इतिहास रच दिया। यह विश्व भर में किसी भी पैराप्लेजिक स्वीमर द्वारा सबसे तेज रिकॉर्ड है। उन्होंने अपने इस कीर्तिमान को गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में शामिल करने के लिए भी सभी तैयारियां कर ली हैं। इसके अलावा उन्होंने ओपन सी कम्पटीशन में 8 किमी की दूरी तैर कर पार की है, यह भी एक विश्व रिकॉर्ड है।
आज हम उनके जीवन के अब तक के उतार-चढ़ाव भरे सफर को परत दर परत उनकी जुबां में आपसे रूबरू करवायेंगे:
मैं बिहार के मधुबनी ज़िले के रथौस गॉंव से हूं। यह सैलाबी इलाका है और अक्सर वहां सैलाब आते हैं। मेरे घर के पास ही तालाब है जहाँ मैं बचपन में तैरा करता था। इस विषय में मेरी मॉं बताती हैं कि जब मैं 2 साल का था, मैं उस वक्त उस तालाब को तैरकर पार कर लिया करता था। लोग मुझे देखते और तालियां बजाकर चौंक जाते कि इतना छोटा बच्चा यह तालाब कैसे पार कर गया। मैं घर में सबसे छोटा था तो मुझे अच्छी शिक्षा के लिए मेरे मॉं-बाप ने मुंबई मेरे बड़े भाई के पास भेज दिया था। मैं महज़ 6 साल का था जब मैं बिहार से मुंबई आया।
शहर आकर दुनिया बदल गयी, खेल बदल गये, सपने बदल गये। मैंने स्कूल स्तर से कराटे में हिस्सा लिया और सफलता भी मिली। अच्छी खासी जिंदगी चल रही थी लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। कई दिनों से पीठ में हल्का-हल्का दर्द रहने लगा। जिसकी जाँच करवाने पर स्पाइनल कॉर्ड में एक गांठ मालूम हुई। मुंबई के नामी-गिरामी अस्पताल में डॉक्टर ने सर्जरी की सलाह दी और कहा बस 15-20 दिन में फिर से दौड़ने लगोगे। मैं कराटे में एक ऊँचे स्तर तक खेल चुका था और एशियन गेम्स भी करीब थे। ऐसे में मैंने अपनी एशियन गेम्स की दावेदारी को दरकिनार कर सर्जरी करवाने का फैसला किया।
सर्जरी हुई, दिन बीतते गये लेकिन मैं बिस्तर से खड़ा नहीं हो पाया। दरअसल मेरा ऑपरेशन असफल हुआ और मैं पैरेलाइज़्ड हो गया। मेरे अम्मी-अब्बू सिरहाने सोते-जागते। अम्मी बीच-बीच में पैरों को छूतीं, चुटकियां काटतीं। मुझे कुछ पता नहीं चलता था लेकिन फिर डॉक्टर की हिदायत याद आती। हर बीतते दिन के साथ मेरा भी भरोसा कम होता चला गया। अंत में मैंने स्वीकार किया कि अब मैं फिर से अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाऊंगा। मैंने किसी और से सलाह लिये बिना सर्जरी करवा ली जिसका अफ़सोस मुझे जिंदगी भर रहेगा।
मेरी जिंदगी का सबसे बुरा वक्त शुरू हुआ। मेरी माँ और मेरे पिता मेरे साथ हर परिस्थिति में खड़े रहे। जब बुरे वक्त पर सब साथ छोड़ देते हैं तब मेरी दीदी ने मेरा साथ दिया। मैं आज अपनी जिंदगी में कुछ भी हासिल कर पाया इसके पीछे इन तीन लोगों का सबसे बड़ा योगदान है। अपने बुरे वक्त से एक बात सीखी कि जिंदगी में कुछ चीजें आपसे कोई नहीं छीन सकता एक तो आपकी तालीम है दूसरी आपकी स्किल। बुरे वक्त में हर कोई आपका साथ छोड़ देगा लेकिन ये दोनों चीजें आपका साथ नहीं छोड़ सकती।
मुझे डॉक्टर्स ने सलाह दी कि स्विमिंग एक अभ्यास की तरह मेरे लिए बहुत ज़रूरी है। मैंने इसे बड़ी चुनौतियों के बाद शुरू किया। इस दौरान मैं राजा राम घाग जी (खुद इंग्लिश चैनल स्वीमर हैं) से मिला और उनसे बहुत प्रेरित हुआ। मेरे जीवन को एक नई दिशा मिल गई। उस वक्त तक मुझे पैरालम्पिक के बारे में कुछ नहीं पता था लेकिन जब से पता चला तब से लेकर आज तक मैंने इसे अपनी ज़िंदगी बना लिया।
आपके करियर का सबसे ख़ास लम्हा क्या है? यह पूछे जाने पर उन्होंने बताया, "अगर मेरी जिंदगी में सबसे खास लम्हा रहेगा तो यह कि मैंने एशियाई खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। हालांकि, मैंने इस प्रतियोगिता में कोई पदक न जीता हो लेकिन लोगों का अपार समर्थन मेरे जेहेन में आज भी बसा हुआ है। जब अनजान लोग आपको देखकर ताली बजा रहे हैं, आपका नाम पुकार रहे हैं, आपका नाम आपके देश के साथ पुकारा जा रहा हो। जब आप इवेंट खेलने जा रहे हो आपके सामने लिखा आता है 'मोहम्मद शम्स आलम फ्रॉम इंडिया'। यह सब बयां कर पाना मुश्किल है। ये सब देखकर मेरे आंसू बहे चले जा रहे थे।" अपने अगले बड़े लक्ष्य के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा, "मैं मेहनत कर रहा हूँ अभी मेरी मेहनत जारी है। भगवान ने चाहा तो अगले एशियाई खेलों में भारत के लिए जरूर मेडल लाऊंगा।
ओपन सी कम्पटीशन में भी हैं उनके नाम रिकॉर्ड:
मैंने 2013 में ओपन सी कम्पटीशन में पहली बार हिस्सा लिया लेकिन मैं इसे पूरा नहीं कर पाया। अगले साल साल 2014 में मैंने मुंबई में 6 किमी ओपन सी स्विमिंग कम्पटीशन को 1 घंटा 40 मिनट में पूरा किया। इसके बाद मैंने 2017 में गोवा में आयोजित 8 किमी ओपन सी स्विमिंग कम्पटीशन को 4 घंटे 4 मिनट में पूरा किया। यह आज भी विश्व रिकॉर्ड है। मेरा यह कीर्तिमान लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है। इसके अलावा मैंने कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी पदक जीते हैं।
मेरे लिए खेल तो जरूरी है लेकिन मेरे जैसे लोग जो आशा खो चुके हैं उनको आगे बढ़ाना मेरे लिए ज्यादा जरुरी है। मेरा प्रयास है कि मैं उनके लिए प्रेरणा बन सकूँ। खेल मेडल तक तो ठीक है लेकिन खेल को इसके आगे ले जाना वो एक लीडर की बात होती है। मुझे अच्छा लगता है कि मुझसे प्रेरणा लेकर अगर किसी का भला हो।
हिंदुस्तान में पैरा एथलीट के लिए ट्रैंनिंग सेंटर नहीं हैं। इसके अलावा देश में पैरा खेलों का आयोजन भी एक सीमित स्तर तक होता है। व्यवस्था नहीं हैं, कोच नहीं हैं। पिछले दो सालों से पैरा तैराकी की नेशनल प्रतियोगिता नहीं हुई है जो कि दुःखद है। खिलाड़ी मायूस हो रहे हैं। जब आपके पास प्रतियोगिता ही नहीं होगी तो खिलाड़ी क्या करेंगे। इसके अलावा पैरा खिलाड़ियों के लिए कोई चैनल हो, डिसेबल लोगों के लिए काउंसलिंग हो, उन्हें बताया जाए कि उन्हें क्या खेलना चाहिए, कैसे खेलना चाहिए।
एक किस्सा जो साझा किया जाना बेहद जरुरी है। जब उनसे पूछा गया एक पैरा स्वीमर के तौर पर क्या विशेष चुनौतियां है? इस पर उन्होंने द ब्रिज को बताया, "मैंने साल 2012 में सबसे पहले स्वीमिंग शुरू की। मैंने तैराकी में अब तक कई विश्व रिकॉर्ड बनाये हैं लेकिन मुझे व्हीलचेयर पर देखकर कोई भी स्वीमिंग पूल पर तैरने की इजाजत नहीं देता। एक समुद्र में तैर के आ चुका खिलाड़ी को कहा जाता है कि आप इस पूल में डूब जाओगे। मुझे आज सात साल बाद भी उन्हें प्रमाण देना पड़ता है। क्या कोई दिव्यांग व्यक्ति तैर नहीं सकता? ये चुनौतियां रोज रहेंगी और तब तक रहेंगी जब तक दिव्यांग के प्रति आम धारणा बदल नहीं जाती। हमको भी समाज का एक हिस्सा माना जाय तभी जाकर यह परिवर्तन होगा नहीं तो यह बदलाव नहीं हो सकता।"
यह भारत का दुर्भाग्य ही है कि देश का प्रतिनिधित्व कर चुके एक तैराक को सरकार से किसी प्रकार की आर्थिक मदद नहीं मिली। शम्स आलम को स्पॉन्सरशिप की भी जरूरत है जो कम से कम उनकी ट्रैनिंग और कम्पटीशन का खर्चा उठा सके। क्योंकी सरकार से पैरा स्वीमरों को किसी प्रकार की मदद नहीं मिल रही है।
अगर वह ठहर जाते चुनौतियों से घबरा जाते या परिस्थितियों से समझौता कर लेते तो क्या यह मुकाम हासिल कर पाते? कभी नहीं उनकी बातों से ऐसा लगा मानों शम्स आलम वक्त की घूरती आँखों में भी अपने ख्वाब देख लेता है। सिर्फ ख्वाब देखता ही नहीं बल्कि उनको पूरा करने के लिए धारा के विपरीत भी तैर सकता है।